चड्डी : लघु व्यंग कथाएं : विष्णु नागर
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प्रभु : हे वत्स, चड्डी छोड़ पैंट क्यों धारण की?
चडड्डीधारी : हे प्रभो, उन वस्त्र में शर्म आती थी, इसलिए त्याग दिया।
प्रभु : जब अपने विचारों से शर्म आने लगे, तो उन्हें भी त्यागना मत भूलना। वैसे शर्म जल्दी तुम्हें आनेवाली नहीं। कल्याण भव!
प्रभु : तुम्हारी चड्डी इतनी घेरदार क्यों है?
चड्डीधारी : हे प्रभो, ताकि स्वच्छ वायु का प्रवाह गतिमान बना रहे।
प्रभु : स्वच्छ वायु की आवश्यकता तुन्हारे दिमाग को है, इसलिए दिमाग के द्वार खोलो, चड्डी के नहीं। कल्याण भव!
चड्डी – चड्डीधारी : हे प्रभो, चड्डी छोड़ के पैंट पहनने पर भी सब लोग हमें चड्डी कहकर चिढ़ाते क्यों हैं?
प्रभु: हे चड्डीधारी, जैसे भारत देश की स्वतंत्रता के 60 साल बाद तिरंगा झंडा और राष्ट्रगान अपनाने से कोई सच्चा देशभक्त नहीं बन जाता, उसी तरह कोई चड्डी छोड़ के पैंट पहनने से विचार नहीं बदल जाते। लोग तुम्हारा सच जानते हैं, इसलिए तुम्हें चड्डी कहते हैं। सुखी रहो!
– प्रभु : हे वत्स, तुम लोगों को यह चड्डी का आइडिया कहाँ से आया? चड्डी तो स्वदेशी वस्त्र नहीं है!
चड्डीधारी : प्रभो, आपसे क्या छिपा है, हमारे विचारों और हमारे इस वस्त्र का स्त्रोत हिटलर-मुसोलिनी से प्राप्त हुआ है।
प्रभु : परंतु ये तो विदेशी थे?
चड्डीधारी : वसुधैव कुटुंबकम वाले हैं न हम! अपने भाई- बंधुओं से प्रेरणा ग्रहण करना प्रभु अनुचित कैसे कहा जा सकता है?
प्रभु: नहीं वत्स, बिल्कुल नहीं। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है कि तुम्हारी गति भी वही हो, जो उनकी हुई थी।
प्रभु : हे वत्स, मुझे कमल के फूल बहुत पसंद हैं, लेकिन वह नहीं, जो चड्डी पहन के खिलता है।
चड्डीधारी : इसलिए तो पैंट धारण की है प्रभो!
प्रभु : हूँ, पैंट में खिला कमल शोभा नहीं देता। सुंदर स्वाभाविक कमल तो वह होता है,जो पंक में खिलता है।
चड्डीधारी : हमारे दिमाग़ों में वही पंक तो भरा हुआ है प्रभो!
प्रभु : सत्य वचन, ख़ूब जिओ!
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