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केजरीवाल का दांव : अग्निपरीक्षा या गुगली?

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।

आलेख : राजेंद्र शर्मा

दिल्ली सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर रिहाई के बाद, आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं से अपने पहले संबोधन में ही, अरविंद केजरीवाल ने उन्हें झंझोड़कर रख देने वाला एलान कर दिया। केजरीवाल ने कहा कि वह दो दिन में मुख्यमंत्री का पद छोड़ देंगे। और उसके बाद मुख्यमंत्री का पद तभी स्वीकार करेंगे, जब जनता उनके ईमानदार होने पर अपने अनुमोदन की मोहर लगा देगी। सुप्रीम कोर्ट ने तो जमानत देकर उनके ईमानदार होने पर कानूनी मोहर लगा दी है, लेकिन उन्हें लगता है कि इतना काफी नहीं है।

अब वह जनता के सामने अग्निपरीक्षा देंगे और मुख्यमंत्री पद तभी स्वीकार करेंगे, जब जनता उनके ईमानदार होने पर अपने वोट से मोहर लगाएगी। और अपनी इस त्याग मुद्रा का दायरा बढ़ाकर, इसे आम आदमी पार्टी की ही त्याग की मुद्रा बनाते हुए, केजरीवाल ने अपने इस्तीफे के फैसले के एलान में एक पेच और डाल दिया। उन्होंने एलान किया कि उन्हीं की तरह, व्यापक रूप से सरकार में नंबर-2 माने जाने वाले, उप-मुख्यमंत्री तथा शिक्षा मंत्री, मनीष सिसोदिया भी इस अग्निपरीक्षा की चुनौती स्वीकार करेेंगे और जनता के ईमानदार घोषित करने के बाद ही, उप-मुख्यमंत्री तथा शिक्षा मंत्री की जिम्मेदारी संभालेंगे। पुन: इसी प्रसंग को और आगे बढ़ाते हुए, एक और पेच जोड़ते हुए केजरीवाल ने यह मांग भी पेश कर दी कि दिल्ली के विधानसभा चुनाव, जो अगली फरवरी में होने हैं, आगे खिसका कर नवंबर में होने वाले महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के साथ करा दिए जाएं, ताकि केजरीवाल की अग्निपरीक्षा जल्दी हो जाए।

कहने की जरूरत नहीं है कि दिल्ली की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा, केजरीवाल की इस गुगली से हतप्रभ रह गयी है। भाजपा के नेता, जो अब तक जेल में रहने के आधार पर केजरीवाल का इस्तीफा मांगते आ रहे थे, अचानक उनके इस्तीफे का एलान करने से समझ नहीं पा रहे हैं कि इसे अपनी कामयाबी मानें या अपनी परेशानी। यह कहने के सिवा कि केजरीवाल ने पहले ही इस्तीफा क्यों नहीं दिया, वे ज्यादा कुछ कह नहीं पा रहे हैं। हां! आखिरकार काफी कसरत के बाद उन्होंने यह नयी मांग जरूर निकाली है कि केजरीवाल और सिसोदिया ही नहीं, पूरे मंत्रिमंडल को इस्तीफा देना चाहिए! बहरहाल, मुख्य विपक्षी पार्टी की प्रतिक्रियाओं से समझना मुश्किल नहीं है कि वह समझ ही नहीं पा रही है कि इस नयी स्थिति से कैसे निपटा जाए। जाहिर है कि चुनाव जल्दी कराने की आम आदमी पार्टी की मांग ने भाजपा को और भी चक्कर में डाल दिया है।

उसकी चुनाव जल्दी कराने में शायद ही कोई दिलचस्पी होगी, लेकिन चुनाव जल्दी कराए जाने का विरोध वह पार्टी कैसे कर सकती है, जो इसके दावे करती नहीं थकती है कि दिल्ली की जनता का केजरीवाल की पार्टी से विश्वास उठ चुका है। बहरहाल, चुनाव जल्दी कराने के मुद्दे पर भाजपा, अपने हितों की रक्षा के लिए चुनाव आयोग पर भरोसा कर सकती है, जो वैसे भी केजरीवाल के मनमुताबिक फैसला क्यों लेना चाहेगा? भाजपा के लिए इस मामले पर चुप लगाना ही काफी होगा। वैसे केजरीवाल ने भी विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं करने और मंत्रिमंडल से जल्दी चुनाव कराए जाने का प्रस्ताव पारित नहीं कराने के जरिए, इसका इशारा कर दिया है कि वह भी जल्दी चुनाव की आम मांग को प्रचार के स्तर पर ही रखने जा रहे हैं, उससे आगे नहीं बढ़ाने जा रहे हैं।

अग्निपरीक्षा के जरिए अपना ”सत” साबित करने का केजरीवाल का फैसला, एक राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक साबित होता है या नहीं, इसका फैसला तो सबसे बढ़कर दिल्ली के चुनाव में होगा। लेकिन, केजरीवाल की गुगली ने भाजपा के लिए उसके खिलाफ अपने प्रचार की बैटिंग में रन बनाना, बहुत मुश्किल बना दिया है। दिल्ली शराब घोटाले के पूरे केस में कोई सचाई होने या नहीं होने से अलग, इससे इंकार करना मुश्किल है कि इस केस में एक के बाद एक, आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी तथा लंबे अर्से तक उन्हें जेल में बंद रखे जाने का, आम तौर पर इस पार्टी की छवि पर और खासतौर पर उसकी भ्रष्टाचार-विरोधी योद्घा की छवि पर, कुछ न कुछ असर जरूर पड़ा है। याद रहे कि यही छवि, मध्यवर्ग के बीच आप पार्टी के समर्थन का मुख्य आधार है। इसके साथ, दस साल से अधिक के शासन से पैदा हुईं लोगों की निराशाएं जुड़कर, आप पार्टी के चेहरे पर बदहवासी की न सही, चिंता की रेखाएं लाती ही थीं। केजरीवाल ने इस दांव से एक ही झटके में, इसी गिरावट को थामने की कोशिश की है।

कहने की जरूरत नहीं है कि आम तौर पर आम चुनाव के और खासतौर दिल्ली की सात सीटों पर चुनाव के नतीजों से, आम आदमी पार्टी ने निश्चित रूप से सबक लिया होगा। उसने खासतौर पर इस तथ्य से सबक तो जरूर लिया होगा कि इन सीटों पर भाजपा के मत फीसद में पिछले आम चुनाव की तुलना में कमी के बावजूद और कांग्रेस तथा आप पार्टी के बीच पूर्ण चुनावी समझौता होने और अरविंद केजरीवाल के विशेष जमानत पर प्रचार के लिए छूटकर, चुनाव प्रचार करने के बावजूद, भाजपा सभी सात सीटों पर जीत दर्ज कराने में कामयाब रही। इससे साफ था कि केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा आप सरकार के रास्ते में बाधाएं खड़ी किए जाने से लेकर, आप नेताओं के साथ उसके अत्याचार तक की सारी शिकायतें भी, दिल्ली के मतदाताओं को पर्याप्त रूप से प्रभावित नहीं कर पा रही थीं। इस अपर्याप्तता ने ही केजरीवाल को इस्तीफे की गुगली फेंकने के लिए प्रेरित किया लगता है, ताकि केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा के खिलाफ अपनी आलोचनाओं को और तीखी धार दे सके।

केजरीवाल की इस्तीफे की गुगली के पीछे एक और भी कारण है। दिल्ली में, जहां उप-राज्यपाल के जरिए, केंद्र सरकार ने निर्वाचित सरकार के हाथ-पांव पहले ही बहुत ज्यादा बांध दिए हैं, केजरीवाल की जमानत पर रिहाई के साथ लगायी गयीं राज्य सचिवालय नहीं जाने से लेकर किसी फाइल पर दस्तखत नहीं करने तक की शर्तें, व्यवहार में उनके लिए मुख्यमंत्री के रूप में काम करना ही बहुत कठिन बना देती थीं। ऐसे में चुनाव से चंद महीने पहले, लगातार उप-राज्यपाल से खींचतान में फंसी सरकार चलाने में उलझे रहने के मुकाबले में, केजरीवाल को यही ज्यादा फायदे का सौदा लगा होगा कि मुख्यमंत्री के पद पर अपने किसी ऐसे उत्तराधिकारी को बैठा दिया जाए, जिसके काम करने पर उतने बंधन नहीं होंगे और इसलिए चुनाव से पहले, दिल्लीवासियों के लिए हित के कुछ काम हो रहे होंगे। और खुद वह स्वतंत्रता के साथ जनता के बीच जाकर, भाजपा के विरुद्घ अभियान चलाने की स्थिति में होंगे।

फिर भी, केजरीवाल के लिए यह गुगली फेकना भी कोई आसान नहीं था। सबसे बड़ी बात यह है कि आम आदमी पार्टी जिस तरह की चंद नेताओं पर ही केंद्रित पार्टी है, जिसके केंद्र में केजरीवाल हैं और जिसका वैचारिक आधार ज्यादा मजबूत नहीं है, संघ-भाजपा के बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक अभियान के सामने खासतौर पर वेध्य है। इस सब को देखते हुए चाहे अस्थायी रूप से ही हो, मुख्यमंत्री के पद के लिए अरविंद केजरीवाल के उत्तराधिकारी का चुनाव आसान नहीं है। भाजपा जिस तरह से साम-दाम-दंड-भेद, सभी हथियार लेकर, आप पार्टी तथा उसकी सरकार को कमजोर करने के लिए मौके की ताक में तैयार बैठी हुई है, उसके सामने तो यह और भी कठिन हो जाता है।

झारखंड का उदाहरण सामने है। पहले गिरफ्तारी के जरिए, हेमंत सोरेन की सरकार को गिराने की कोशिश की गयी। जब यह कोशिश नाकाम रही और मुख्यमंत्री के पद पर हेमंत सोरेन वापस भी आ गए, तो उनकी जेल यात्रा के दौरान एवजीदार मुख्यमंत्री बनाए गए चंपई सोरेन को भाजपा ने तोड़ लिया। उनके सहारे एक अलग आदिवासी पार्टी खड़ी करने की कोशिश भी जब सिरे नहीं चढ़ी तो, उन्हें भाजपा में शामिल कर लिया गया। और अब खुद प्रधानमंत्री झारखंड में अपने चुनाव की घोषणा से पहले के चुनाव प्रचार में, भाजपा में नये-नये भर्ती किए गए चंपई सोरेन तथा सीता सोरेन के नाम का, झारखंड मुक्ति मोर्चा पर हमले के लिए इस्तेमाल करते देखे जा सकते हैं। अब जबकि केजरीवाल, जनमत की अग्निपरीक्षा में खरा उतरने के बाद, फिर से दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के हिसाब से चल रहे हैं, वह निश्चय ही झारखंड के घटनाक्रम की दिल्ली में पुनरावृत्ति नहीं चाहेंगे। अस्थायी उत्तराधिकारी के पद पर भी वह ऐसे उम्मीदवार को लाना चाहेंगे, जो निजी तौर पर उनके प्रति वफादार भी हो और ज्यादा स्वतंत्र होने की कोशिश भी नहीं करे।

बेशक, केजरीवाल की गुगली का जहां तक अगले महीने के शुरू में हरियाणा में होने जा रहे चुनाव पर असर पड़ेगा, भाजपा को इसका परोक्ष लाभ भी मिल सकता है। याद रहे कि आप, कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन के रूप में चुनाव लड़ने की संभावनाओं को पीठ दिखाकर, अब राज्य की सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बहरहाल, अरविंद केजरीवाल के अब खुद जोरदार तरीके से चुनाव प्रचार में जुटने का रास्ता खुल जाने के बावजूद, हरियाणा के चुनाव में आप पार्टी के बड़ा खिलाड़ी बनकर उभरने तो दूर, कोई खास असर डालने में समर्थ होने की भी संभावनाएं कम ही हैं। बहरहाल, दिल्ली में जरूर आम आदमी पार्टी, इस गुगली से भाजपा के खिलाफ और शेष विपक्ष के खिलाफ भी, अपने प्रचार को ज्यादा धारदार बनाने में और अपने जनाधार के छीजने को रोकने में कामयाब हो सकती है। लेकिन, यह तभी होगा जब केजरीवाल को सचमुच अपने मन मुताबिक खड़ाऊं मुख्यमंत्री मिल जाए।

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