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न न्याय, न सुरक्षा : बदलना एक ‘लोकतांत्रिक’ राज्य का ‘पुलिस स्टेट’ में!

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आलेख : संजय पराते

रायपुर पिछली संसद में 20 दिसंबर 2023 को 146 निलंबित विपक्षी सदस्यों, जो इस देश की 24 करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व करते थे, की अनुपस्थिति में बिना बहस पारित कराए गए तीन नए आपराधिक कानूनों ने 1 जुलाई 2024 से पुराने कानूनों की जगह ले ली है। इन तीन कानूनों के खिलाफ पूरे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई है और विपक्ष सहित कानूनविदों और अधिवक्ताओं के बड़े हिस्से ने फिलहाल इसका क्रियान्वयन स्थगित रखने और व्यापक विचार-विमर्श करने की मांग की थी। जगह-जगह इसके खिलाफ आंदोलन भी हो रहे हैं। कुछ विपक्ष शासित राज्यों ने तो इन कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव भी पारित किए हैं। बहरहाल, मोदी सरकार ने इस मांग को ठुकरा दिया है

मोदी सरकार ने यह कहकर इन कानूनों के औचित्य को बताने की कोशिश की है कि पुराने कानून अंग्रेजों के जमाने के औपनिवेशिक कानून थे और इसकी प्रकृति दमनकारी और प्रतिगामी थी और देश को ऐसे आपराधिक कानून चाहिए, जो हमारे देश के संविधान और लोकतांत्रिक राज्य की आकांक्षाओं के अनुरूप हो और जिसमें समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए प्रगतिशील दृष्टांतों का समावेश हो। तीनों आपराधिक कानूनों को लागू करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने दावा किया है कि इन कानूनों के कारण अपराध में कमी आयेगी, इससे नागरिकों को त्वरित न्याय मिलेगा और तीन साल के अंदर किसी भी मामले का फैसला हो जाएगा और इससे लंबित मुकदमों की बाढ़ भी रुकेगी।इन तीन नए आपराधिक कानूनों का वाकई स्वागत किया जाना चाहिए, यदि वे इन बातों के अनुरूप हो। लेकिन क्या वाकई ऐसा है?

एक सामान्य नागरिक के लिए न्याय की अवधारणा क्या होती है? यह कि उसके नागरिक अधिकारों को संरक्षण मिले और उसके हनन के खिलाफ लोकतांत्रिक ढंग से वह अपना विरोध व्यक्त कर सके और ऐसा करते हुए वह राज्य के और प्रशासन के दमनकारी रवैए का शिकार न हो ; यह कि पुष्ट आधारों पर उसके खिलाफ आरोप लगाए जाएं और जब तक अदालत उसे दोषी करार न दे, उसे अपराधी न माना जाए और उसके साथ एक अपराधी-जैसा व्यवहार न किया जाएं ; यह कि जाति, धर्म, भाषा, लिंग और अमीर-गरीब जैसे विभाजनकारी आधारों पर हमारे समाज में मौजूद भेदभाव से उसे कानूनन सुरक्षा मिले, ताकि एक नागरिक के रूप में उसके सम्मान की रक्षा हो सके और मानवीय गरिमा के साथ वह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का वह उपभोग कर सके। न्याय की इसी अवधारणा को हमारे संविधान में, और विशेषकर इसके अनुच्छेद 14 और 19 में परिभाषित किया गया है। दुर्भाग्य की बात है कि तीनों नए आपराधिक कानून नागरिकों के लिए न्याय की इस सामान्य अवधारणा का ही उल्लंघन करते हैं, जो कि इनके विभिन्न प्रावधानों से स्पष्ट होता है।

संविधान ही हमारे देश की ‘गीता/कुरान/बाइबल’ है, जो शासन के मूल आधारों को दिशा-निर्देशित करती है और नागरिक अधिकारों का संरक्षण करती है। संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून यदि संविधान द्वारा प्रतिपादित मूल्यों के खिलाफ हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि समीक्षा के बाद उसे असंवैधानिक घोषित करके निरस्त कर दें। यदि किसी कानून का कोई प्रावधान किसी नागरिक के अधिकार से टकराए, तो उसे यह अधिकार है कि वह उस प्रावधान को निलंबित कर दें और व्यक्ति के अधिकार की संरक्षा करे। इस प्रकार, कोई कानून उसमें लिखे हुए शब्दों के आधार पर नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर उसकी व्याख्या के आधार पर अपना अर्थ ग्रहण करता है। यह व्याख्या हमारे पुरातनपंथी समाज को आधुनिक समाज बनाने में, इसकी रूढ़ और प्रतिगामी दृष्टि को वैज्ञानिक चेतना से संपन्न बनाने में मदद करती है और अंततः हमारे मानव समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने की ओर ले जाती है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया के जरिए ही कोई कानून अपना आकार ग्रहण करता है और कोई नागरिक विधि की चेतना से अनुशासित होता है। वैज्ञानिक दृष्टि बोध से संचालित विधि के बिना एक सभ्य समाज की जगह हम एक बर्बर और हिंसक समाज का ही निर्माण कर रहे होंगे।

यह सामान्य अनुभव की बात है कि आर्थिक विषमता से पीड़ित समाज में कानून भी अपनी निष्पक्षता खो देता है। उसका पलड़ा हमेशा सामाजिक-राजनैतिक रूप से प्रभुत्वशाली तबकों और साधन संपन्नों की ओर झुका रहता है। इसलिए, हमारे संविधान की तमाम सदिच्छाओं के बावजूद पुराने आपराधिक कानूनों का वर्गीय चरित्र स्पष्ट था कि वे न निरपेक्ष थे, न निष्पक्ष। चूंकि इन कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी प्रभुत्वशाली तबकों के नियंत्रण में है, एक सामान्य नागरिक के लिए न्याय की अवधारणा से वह बहुत दूर हो जाती है। यह तब और कठिन हो जाता है, जब केंद्र में बैठी सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन पूरे राज्य को ही कॉरपोरेट-हितों से संचालित करने लगे। ऐसी हालत में प्राकृतिक न्याय की अवधारणा भी खतरे में पड़ जाती है।

पिछले दस सालों में भाजपा के मोदी राज का इतिहास एक तानाशाही सत्ता से फासीवादी सत्ता में बदलने का इतिहास है। इस सत्ता ने देशी-विदेशी कॉर्पोरेट ताकतों के साथ हाथ मिला लिया है, जिनके हित व्यापक जनता के शोषण और जल, जंगल, जमीन, खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों की लूट और आदिवासियों, मजदूरों और किसानों के निर्मम दमन पर टिके हैं। इस लूट और दमन के खिलाफ आम जनता का असंतोष हाल के लोकसभा चुनाव के परिणामों में सामने आया है, जिसने भाजपा को अकेले बहुमत से वंचित कर दिया है और उसके गठबंधन के आकार में भी भारी कटौती कर दी है और विपक्षी इंडिया समूह को एक बड़ी ताकत के रूप में सामने लाया है, जिसके आक्रामक तेवर को संसद के पहले सत्र में सबने देखा, महसूस किया है। लेकिन अपनी पराजय के बावजूद, अपने रवैए से मोदी-शाह की भाजपा ने यह साफ कर दिया है कि वह अपनी पुरानी जनविरोधी नीतियों पर ही चलने वाली है और इन नीतियों में उससे बदलाव की अपेक्षा करना बेकार है।

एक तानाशाह और फासीवादी सत्ता संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देती है और अपने आप के सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक होने का दम भरती है, लेकिन व्यवहार में सबसे ज्यादा दमनकारी, गैर-लोकतांत्रिक और असंवैधानिक होती है। वह कांग्रेस के आपातकाल की निंदा करते हुए अपनी अघोषित तानाशाही और कुकर्मों पर खूबसूरती से पर्दा डालने की कोशिश करती है। ऐसा करते हुए वह कानूनों को भी इस रूप में ढालती है कि उसकी तानाशाही भी कानून सम्मत लगे, जिसके पीछे संविधान का बल होना प्रतीत हो। दमनकारी कानून एक तानाशाह सत्ता की सामान्य जरूरत होती है। तीन नए आपराधिक कानूनों के जरिए मोदी सरकार ने अपनी इसी जरूरत को पूरा किया है। इसीलिए, इन कानूनों के प्रारूप पर पहले विधि आयोग में विचार विमर्श होना था, नहीं हुआ ; संसद में बहस होनी चाहिए थी, वह भी नहीं हुई।

अव्वल तो इन तीनों कानूनों के 70% हिस्से पुराने कानूनों के ही हैं, बस धाराओं की संख्या बदल गई है। जो 30% बदलाव हुए हैं, वे स्पष्ट रूप से नागरिक अधिकारों का हनन करते हैं, न्याय की आधुनिक अवधारणा के खिलाफ जाते हैं और राज्य के हाथ में इतनी ज्यादा दमनात्मक शक्तियां देते हैं कि सामान्य नागरिकों के पास अपने बचाव के कोई साधन ही नहीं बचते। न्याय के नाम पर ‘बुलडोजर न्याय’ को ही आगे बढ़ाया गया है, जिसकी कोई जगह एक आधुनिक, सभ्य और समानता आधारित समाज में नहीं हो सकती। इसीलिए ये तीनों कानून पुराने आपराधिक कानूनों से बदतर है, जो समाज को विभाजित-विखंडित करने का ही काम करेगा।

न्याय शास्त्र की आधुनिक अवधारणा है कि एक सभ्य लोकतांत्रिक राज्य में जमानत किसी भी व्यक्ति का अधिकार है और हिरासत अपवाद। इन नए कानूनों के जरिए न्याय शास्त्र की इस आधुनिक अवधारणा को उलट दिया गया है और राज्य को किसी भी नागरिक को हिरासत में रखने का अधिकार दिया गया है और जमानत को कठिन बना दिया गया है। ऐसा करने के लिए, अपराधियों से निपटने के नाम पर, पुलिस को कठोर शक्तियां दी गई है, जिसमें पुलिस विभिन्न मामलों में हिरासत की संभावित अवधि 15 दिनों से बढ़ाकर 60 से 90 दिनों तक कर सकती है। ऐसे समय, जब पुलिस का चेहरा जन विरोधी हो गया हो, पुलिस को ऐसा अधिकार देना ‘बंदर के हाथों उस्तरा थमा देना’ है। इससे पुलिस हिरासत में नागरिकों को डराने धमकाने, प्रताड़ित करने का ही खतरा बढ़ जाता है। वैसे भी इस ‘लोकतांत्रिक’ देश में पुलिस थानों में प्रताड़ना और पुलिस हिरासत में मौतों के आंकड़े भयावह है। इसी प्रकार, किसी पुलिस अधिकारी के निर्देश को मानना (चाहे वह गैर-कानूनी ही क्यों न हो) ‘नागरिकों का कर्तव्य’ होगा और इसकी अवहेलना (विरोध, न मानना आदि) अपराध। लेकिन ऐसे मामलों में, नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए, दोषी पुलिस अधिकारी के खिलाफ शिकायत दर्ज करने का कोई प्रावधान इन कानूनों में नहीं है। यह पुलिस प्रशासन को पूरी तरह निरंकुश बनाना है।

पुराने कानून की दंड संहिता की धारा 124 (ए) राजद्रोह से संबंधित थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई न्याय दृष्टांतों में इसे निलंबित करके रखा था। यह नए कानून की न्याय संहिता में देशद्रोह बनकर धारा 150 के रूप में अवतरित हुई है। यह न केवल सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को अपराध बनाता है, उसके किसी भी निर्णय के खिलाफ अभिव्यक्ति (फ्री स्पीच) को भी अपराध बनाता है। हमारे देश का संविधान अपने नागरिकों को विरोध करने और इसके लिए संगठन बनाने, सभाएं करने, बोलने-लिखने के अधिकार की गारंटी देता है, लेकिन इस नई न्याय संहिता के जरिए संविधान के इस खंड को ही ‘अर्थहीन’ बना दिया गया हैं।

इसी प्रकार, आतंकवादी गतिविधियों से निपटने के लिए यूएपीए जैसे कठोर कानून मौजूद है। इस कानून का, मोदी राज में सरकार के कृत्यों के साथ असहमति रखने वाले बुद्धिजीवियों के खिलाफ, जिस प्रकार क्रियान्वयन हो रहा है, उसके खिलाफ पूरे देश में हंगामा हो रहा है। इसके बावजूद ‘आतंकवादी कृत्य’ को एक नए अपराध के रूप में न्याय संहिता में शामिल किया गया है। अब पुलिस के सामान्य अधिकारी को भी किसी भी नागरिक को आतंकवादी आरोपित करने की छूट मिल गई है। शांतिपूर्ण जनवादी आंदोलन और भाषण भी अब ‘आतंकवाद’ की श्रेणी में रखे जा सकते है। अपने आपको बेकसूर साबित करने का भार आरोपी पर डाल दिया गया है — याने बिना किसी पुष्ट तथ्यों के राज्य आरोप लगाने के लिए स्वतंत्र है, आरोपी नागरिक को ही अपने को बेकसूर साबित करना है। मोदी राज में जिस प्रकार ईडी, सीबीआई सहित तमाम स्वायत्त एजेंसियों का विपक्ष के खिलाफ दुरुपयोग किया जा रहा है, उसे देखते हुए यह समझना आसान है कि इस कानून के दुरुपयोग के जरिए विपक्ष के राजनैतिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और सरकार से असहमति रखने वाले लोगों से अब बदला लेना आसान हो गया है। लेकिन पुलिस द्वारा इस कानून के दुरुपयोग के खिलाफ आम नागरिकों के लिए कोई भी सुरक्षा उपाय अनुपस्थित है।

संजय पराते लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

नए कानून में बलात्कार को इस तरह परिभाषित किया गया है कि बलात्कार केवल पुरुष कर सकता है और पीड़िता केवल महिला ही हो सकती है। यह कानून लिंग भेद को बढ़ावा देता है और लैंगिक रूप से तटस्थ नहीं है।इस कानून में पुरानी दंड संहिता की धारा 377, जो गैर-सहमति वाले कृत्यों और पशुता से संबंधित थी, को हटा दिया गया है। इसका अर्थ है कि अब किसी भी जानवर के साथ बलात्कार करना अपराध नहीं है। नए कानून में ‘वैवाहिक बलात्कार’ की अवधारणा को भी त्याग दिया गया है और यह मान लिया गया है कि कोई पति, अपनी पत्नी के साथ जोर-जबरदस्ती नहीं करेगा, या यदि वह ऐसा करता भी है, तो यह उसका अधिकार है और अपराध नहीं है। इस प्रकार, बलात्कार कानूनों में प्रस्तावित बदलाव न केवल प्रतिगामी है, बल्कि यौन-हिंसा के खिलाफ चले संघर्षों में हासिल उपलब्धियों का नकार भी है।

हमारा देश आज बड़े पैमाने पर ‘नफरती राजनीति’ का शिकार है। इसका चरम हमने लोकसभा चुनाव में मोदी द्वारा दिए गए भाषणों में देखा, जब वे धर्म के आधार पर हिंदुओं को लामबंद करने के अपने प्रयास में मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय को “मांस, मटन, मछली और मंगल सूत्र” के नाम पर निशाना बना रहे थे और उनके खिलाफ चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन की विपक्ष की शिकायतों को चुनाव आयोग ने भी महत्व नहीं दिया, क्योंकि वह अपनी स्वायत्तता पहले ही खो चुका है। राज नेताओं के नफरती बोलों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायिक दृष्टांत हैं और उसने विधि आयोग को ऐसे घृणास्पद भाषणों को रोकने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने के निर्देश भी दिए थे। विधि आयोग ने अपनी 267वीं रिपोर्ट में सरकार को अपनी सिफारिशें भी दी है। लेकिन इस रिपोर्ट को नए आपराधिक कानूनों में कोई जगह नहीं मिली है और नए कानून नफरती भाषणों के खतरों से निपटने में सक्षम नहीं है।

नया कानून अब हर नागरिक को ‘संदिग्ध’ नजरों से देखता है और उसे ‘अपराधी’ मानता है। इसीलिए अब हर नागरिक को, चाहे वह अपराधी हो या न हो, सरकार को अपना ‘बायो-मैट्रिक्स’ देना पड़ेगा। अब हर नागरिक और उसकी गतिविधियां पुलिस की नजर में होगी। यहां आकर भारत संघ के एक लोकतांत्रिक देश से ‘पुलिस स्टेट’ में बदलने की प्रक्रिया पूरी होती है। इसलिए ये नए आपराधिक कानून पुराने कानूनों से भी बदतर साबित होने जा रहे हैं। वैश्विक सभ्यता और आधुनिक मानवीय मूल्यों के दायरे में आपराधिक कानूनों को लोकतांत्रिक बनाने की जगह मोदी सरकार ने नागरिकों का ही ‘अपराधीकरण’ कर डाला है, जिससे निपटने के लिए एक ‘पुलिस स्टेट’ की उसे सख्त आवश्यकता है।

 

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