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एसबीआई 2014 से ही है खालाजी का घर: बादल सरोज

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मोदी हैं, तो मुमकिन है!

बात 2014 की है। अभी सेहरा बंधने के निशान मिटे भी नहीं थे – संसद की सीढियां उन पर बहाए गए आंसुओं से अभी भी गीली थी … और जिस तरह नयी नयी साईकिल सीखने वाला चौराहे की दूकान से माचिस लेने भी साईकिल से जाता है, उसी तरह नए नवेले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘विदेश यात्राओं की लूट है, लूट सके तो लूट’ की धुन ठाने ताबड़तोड़ विश्व-भ्रमण में लगे थे। अकेले जाने में शायद डर लगता रहा होगा, सो जहां भी जाते थे, सखा गौतम अडानी को लेकर जाते थे/आज भी जाते है।

ऐसी ही एक यात्रा में वे नवम्बर 14 के तीसरे सप्ताह में ऑस्ट्रेलिया पहुंचे। यहाँ कोई कंगारू-वंगारू उन्हें भेंट नहीं होना था — न सिडनी-विडनी, मेलबोर्न-वेलबोर्न, पर्थ-वर्थ ही घूमना था। सखा अडानी “मैया, मैं तो चंद-खिलौना लैहौं। जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं॥” की तरह मचल रहे थे — यहाँ की कोयला खदान पर उनका दिल आ गया था, सो उनका सौदा करवाना था।

अड़चने तीन थीं :
पहली कूटनीतिक दबाब की थी, सो खुद पीएम के जाने से सुलझ गयी है। इधर वाले ने उधर वाले से बात की और क्वीन्सलैंड प्रदेश की सरकार ने मंजूरी दे दी। दूसरी थी नाम बदलने की, मुनाफे के लिए न जाने क्या-क्या बदला जा सकता है, नाम तो लगता कहाँ है। अडानी भाऊ ने भले शेक्सपीयर न पढ़ा हो, मगर उनका कहा जरूर सुन रखा था। सो तुरंत ही अपनी कंपनी का नाम बदलकर ब्रावस माइनिंग एंड रिसोर्सेज कर लिया ।
तीसरी समस्या थोड़ी कड़ी  थी। ऑस्ट्रेलिया की यह कोयला कम्पनी कार्माइकल बिना नकदी के मानने को तैयार नहीं थी। हजार कोशिशों के बाद भी वे जब अपने प्रधानमंत्री की नहीं मान रही थी, तब इधर वाले की तो क्या ही मानतीं।

उनकी वजह जेनुइन थी। दुनिया की 5 प्रमुख वैश्विक बैंक – सिटी बैंक, डायचे बैंक, रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैंड, एचएसबीसी और बार्कलेज कर्जा देने से मना कर चुकी थीं। इन बैंकों की आपत्ति दो थीं, इनमे से एक अडानी समूह की बुलबुला आर्थिक स्थिति की थी। उनका कहना था कि यह समूह 30 अरब डॉलर से ज्यादा कर्जे में है और “गंभीर तनाव” में है।

इसका भी तोड़ निकला। आखिर मोदी हैं, तो मुमकिन होइबेई करेगा। आनन-फानन फोन करके जम्बूद्वीपे भारतखण्डे से स्टेट बैंक की चेयरमैन साहिबा या जिस पद पर भी रही होंगी, अरुन्धती भट्टाचार्य को ऑस्ट्रेलिया बुलाया गया। सुनते हैं कि किसी कॉफ़ी टेबल पर बैठकर फ़ौरन 5000 करोड़ रूपये यानि 1 अरब डॉलर का ऋण देने का करार हुआ। अंगरेजी में इसे मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग MOU बोलते हैं !!

(तब मोदी बने बने ही थे, इसलिए रूपये की इज्जत थी और वह आज की तरह 1 डॉलर = 83 रुपये का नहीं हुआ था, 50 रूपये का एक डॉलर था।)

यह बात अलग है कि शोर मचने पर बाद में इधर एसबीआई के एग्जीक्यूटिव ने इसे नामंजूर कर दिया, उधर ऑस्ट्रेलिया में पर्यावरणवादियों ने पलीता लगा दिया। हालांकि 6 साल बाद 2020 के नवम्बर में फिर से कर्जा देने का फैसला करवा लिया गया।

यह कहानी सुनाने का मतलब यह है कि देश की सबसे बड़ी बैंक – स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया – को खाला जी का घर आज से बनाकर नहीं रखा गया। जब से संतन के पाँव संसद में प्रधानमंत्री की आसंदी तक पहुंचे हैं, बंटाढार तब से ही होना शुरू हो गया था।

आज ये बैंक – सेवा, पारदर्शिता, सदाचार, शिष्टता एवं निरंतरता का दावा करने वाली बैंक ; देश के एक चौथाई बैंकिंग व्यापार पर अधिकार वाली, 22,405 से भी अधिक शाखाओं, 65,627 एटीएम/एडीडबल्यूएम, 76,089 बीसी आउटलेट के विशाल नेटवर्क, विश्व के 29 देशों में 235 कार्यालयों और 48 करोड़ खाताधारकों वाली हमारी स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया — चोट्टों को बचाने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत के आगे झूठ-दर-झूठ-दर-झूठ बोले चली जा रही है।

 

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